
साक्षी भाव क्या है? -सदगुरु आदियोगी जी
साक्षी की साधना: सुख-दुख के बंधनों से मुक्ति का अनमोल रत्न
आज के भागदौड़ भरे जीवन में, जहां हर कोई सुख की तलाश में भटक रहा है, वहीं दुख भी पीछा नहीं छोड़ता। सुख-दुख के इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने का एक अद्वितीय मार्ग है – साक्षी भाव की साधना। यह साधना प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक अनमोल रत्न है, जो उसे जीवन के उतार-चढ़ाव से पार पाने में मदद करती है।
साक्षी भाव क्या है?
साक्षी भाव का अर्थ है स्वयं को एक साक्षी के रूप में देखना, एक द्रष्टा के रूप में, जो जीवन के सभी घटनाक्रमों को एक तटस्थ दृष्टिकोण से देखता है। यह भाव हमें सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय से ऊपर उठकर अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने में मदद करता है।
साक्षी भाव की साधना के लाभ:
सुख-दुख के बंधनों से मुक्ति: जब हम साक्षी भाव से जीवन को देखते हैं, तो हम सुख-दुख के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं। हम समझते हैं कि सुख और दुख दोनों ही क्षणिक हैं और हमारे वास्तविक स्वरूप को प्रभावित नहीं कर सकते।
मानसिक शांति: साक्षी भाव की साधना से मन शांत और स्थिर होता है। हम चिंता, तनाव और नकारात्मक विचारों से मुक्त हो जाते हैं।
आत्म-ज्ञान: साक्षी भाव हमें अपने वास्तविक स्वरूप को जानने में मदद करता है। हम समझते हैं कि हम आत्मा हैं, जो अजर-अमर और अविनाशी है।
आध्यात्मिक विकास: साक्षी भाव की साधना हमारे आध्यात्मिक विकास को गति देती है। हम अपने अंदर के दिव्य प्रकाश को पहचानने लगते हैं।
साक्षी भाव की साधना कैसे करें?
साक्षी भाव की साधना के लिए नियमित ध्यान और अभ्यास की आवश्यकता होती है। हमें अपने विचारों और भावनाओं को बिना किसी निर्णय के देखना सीखना होगा। हमें यह समझना होगा कि हम अपने विचार और भावनाएं नहीं हैं, बल्कि उनसे परे एक चेतन सत्ता हैं।
साक्षी भाव की साधना के लिए कुछ सुझाव:
प्रतिदिन ध्यान करें: ध्यान करने से मन शांत होता है और साक्षी भाव को विकसित करने में मदद मिलती है।
अपने विचारों और भावनाओं को देखें: अपने विचारों और भावनाओं को एक तटस्थ दृष्टिकोण से देखें। उन्हें आने दें और जाने दें।
वर्तमान क्षण में रहें: अपने ध्यान को वर्तमान क्षण पर केंद्रित करें। भूतकाल की यादों या भविष्य की चिंताओं में न उलझें।
स्वयं को स्वीकार करें: अपने आप को वैसे ही स्वीकार करें जैसे आप हैं। अपनी कमियों और गलतियों को भी स्वीकार करें।
साक्षी भाव की साधना एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। इसके लिए धैर्य और दृढ़ता की आवश्यकता होती है। लेकिन यदि हम इस साधना को नियमित रूप से करते हैं, तो हम निश्चित रूप से सुख-दुख के बंधनों से मुक्त हो सकते हैं और आत्म-साक्षात्कार की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
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